जाने जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्वा

संतान की दीर्घायु, सुखी और निरोगी जीवन के लिए जीवित्पुत्रिका व्रत, ज्यूतिया या जीमूतवाहन व्रत रखा जाता है। यह व्रत हर वर्ष आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रखा जाता है। इस साल यह व्रत 18 सितंबर को है। अलीगंज के ज्योतिषाचार्य एसएस नागपाल और सीतापुर रोड स्थित हाथी मंदिर के आचार्य आनंद दुबे ने बताया कि अष्टमी तिथि 17 सितम्बर को दिन में 02:14 से शुरू होकर 18 सितम्बर की शाम 04:32 बजे तक है। इस दिन माताएं निर्जला व्रत रखती हैं, जिसमें जल, फल या अन्न आदि ग्रहण नहीं किया जाता है। 19 सितंबर को सुबह व्रत का पारण किया जाएगा।

पढ़ें जीवित्पुत्रिका व्रत से जुड़ी पावन कथा-

इस व्रत के संबंध में भगवान शंकर ने माता पार्वती को बताया था कि यह व्रत संतान की सुरक्षा के लिए किया जाता है। इस व्रत से जुड़ी एक पौराणिक कथा है, जो जिमूतवाहन से जुड़ी है। सत्य युग में गंधर्वों के एक राजकुमार थे, जिनका नाम जिमूतवाहन था। वे सद् आचरण, सत्यवादी, बडे उदार और परोपकारी थे। जिमूतवाहन को राजसिंहासन पर बिठाकर उनके पिता वन में वानप्रस्थी का जीवन बिताने चले गए। जिमूतवाहन का राज-पाट में मन नहीं लगता था। वे राज-पाट की जिम्मेदारी अपने भाइयों को सौंप पिता की सेवा करने के उद्देश्य से वन में चल दिए। वन में ही उनका विवाह मलयवती नाम की कन्या के साथ हो गया।

वन में भ्रमण करते हुए जब एक दिन वे काफी आगे चले गए, तो एक वृद्धा को रोते हुए देखा। उनका हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने वृद्धा से उसके रोने का कारण पूछा तो उसने बताया- मैं नागवंश की स्त्री हूं। मुझे एक ही पुत्र है। नागों ने पक्षीराज गरुड़ को भोजन केे लिए प्रतिदिन एक नाग देने की प्रतिज्ञा की है। आज मेरे पुत्र शंखचूड़ की बलि का दिन है। जिमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा- डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज तुम्हारे पुत्र की जगह स्वयं को लाल कपडों से ढक कर शिला पर लेटूंगा। जिमूतवाहन ने शंखचूड़ के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और उसे लपेट कर निश्चित शिला पर लेट गए।

गरूड़ जी आए और लाल कपड़े में लिपटे जिमूतवाहन को पंजे से पकड़ कर पहाड़ के शिखर पर जा बैठे। इस बीच अपनी पकड़ में आए प्राणी की आंखों में आंसू देख कर गरुड़ जी आश्चर्य में पड़ गए। उससे परिचय पूछा, तो जिमूतवाहन ने सारी कथा सुना दी। गरुड़ जी उनकी बहादुरी और दूसरों की प्राण रक्षा के लिए खुद को बलिदान करने की भावना से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने जीमूतवाहन को जीवनदान दे दिया और नागों की बलि ना लेने का वचन भी दिया। जिमूतवाहन के त्याग और साहस से नाग जाति की रक्षा हुई। तभी से संतान की सुरक्षा और सुख के लिए जीमूतवाहन की पूजा की शुरुआत हो गई। यह व्रत कठिन तो है, पर बहुत फलदायी भी है। इस व्रत को जिउतिया के नाम से भी जाना जाता है।

Indian Letter

Learn More →