कश्मीर में आतंक का ‘ग्राउंड जीरो’ और BSF की शौर्य गाथा; क्यों देखें यह फिल्म?

कश्मीर में वर्दी का मतलब समझते हैं आप? फिल्म का यह संवाद न सिर्फ झकझोरता है बल्कि वर्दी के पीछे के कई अनछुए पहलुओं की ओर ध्यान खींचता है। धरती का जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर को जब भी आतंकियों ने नापाक करने की कोशिश की, तब भारतीय सेना, एयरफोर्स और खुफिया एजेंसियों ने उन्हें अंजाम तक पहुंचाया है।
यह फिल्म ऐसे समय आई है, जब देश पहलगाम हमले में मारे गए निहत्थे और निर्दोष पर्यटकों को लेकर गमगीन है, लेकिन ‘ग्राउंड जीरो’ उम्मीद जगाती है कि हमारे जांबाज सैनिक अपनों के बलिदान को जाया नहीं जाने देंगे।
ग्राउंड जीरो फिल्म में किस की कहानी है?
सिनेमा में सेना, इंटेलिजेंस विभाग, एयरफोर्स की जांबाजी को अनेक फिल्मों में कभी सच्ची तो कभी काल्पनिक कहानियों के जरिए समय-समय पर दर्शाया गया है। हालांकि, सीमा प्रहरी कहे जाने वाले बीएसएफ को केंद्र में रखकर पहली बार फिल्म बनी है।
ग्राउंड जीरो फिल्म बीएसएफ कमांडेंट नरेंद्र नाथ धर दुबे पर आधारित है, जिन्होंने आतंकी गाजी बाबा को मारने गिराने वाले ऑपरेशन का नेतृत्व किया था।यह मिशन बीएसएफ के पिछले 50 वर्षों में सबसे बेहतरीन ऑपरेशन के तौर पर दर्ज है। गाजी बाबा जैश-ए-मोहम्मद का कमांडर और हरकत-उल-अंसार आतंकी संगठन का डिप्टी कमांडर था। उसे 13 दिसंबर, 2001 को भारतीय संसद पर हुए हमले का मास्टरमाइंड माना जाता है। गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हुए हमले के पीछे यही आतंकी संगठन था।
कहां से शुरू होती है ग्राउंड जीरो की कहानी?
कहानी की शुरुआत साल 2001 में श्रीनगर से होती है, जब पिस्टल गैंग का आतंक श्रीनगर में छाया है। नौजवान लड़कों को पैसों का लालच देकर बरगलाया जा रहा होता है। वे अचानक से पीठ पीछे आकर बीएसएफ कर्मियों को गोली मार देते हैं। करीब 70 जवान बलिदान दे चुके होते हैं।
आतंकी अपने संदेशों को कोड के जरिए भेजते हैं। बीएसएफ अधिकारी नरेंद्र (इमरान हाशमी) को पिस्टल गैंग के मास्टरमाइंड को पकड़ने की जिम्मेदारी दी जाती है।
वह इस बात में यकीन रखते हैं कि असल जीत नौजवानों को गिरफ्तार करने में नहीं बंदूक छुड़ाने में हैं। जैश-ए-मोहम्मद उसी दौरान भारतीय संसद पर हमला करता है। नरेंद्र अपने इनफॉर्मर की मदद से गाजी बाबा तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं, लेकिन वो भागने में कामयाब हो जाता है।
साल 2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हमले के बाद गाजी बाबा के खास गुर्गे को पकड़ने में नरेंद्र कामयाब होते हैं। वह किस प्रकार गाजी को अंजाम तक पहुंचाते हैं। कहानी इस संबंध में हैं।
संचित गुप्ता और प्रियदर्शी श्रीवास्तव ने फिल्म की कहानी स्क्रीनप्ले और संवाद लिखा है। फिल्म के कुछ संवाद दमदार हैं। मसलन सिर्फ कश्मीर की जमीन हमारी है या यहां के लोग भी। गाजी बाबा को मार गिराने के ऑपरेशन के पूर्वानुमानित होने के बावजूद निर्देशक तेजस प्रभा विजय देऊस्कर फिल्म पर शुरुआत से अपनी पकड़ बनाए रखते हैं।
वह श्रीनगर की खूबसूरती की झलक देने के बाद धीरे से आपको कश्मीर में तैनात बीएसएफ कर्मियों की दुनिया में ले जाते हैं, जहां हर पल उनकी जिंदगी पर खतरा मंडरा रहा होता है।
वह बीएसएफ की कार्यशैली के साथ उनकी निजी जिंदगी को संतुलित तरीके से दर्शाते हैं। फिल्म में ड्यूटी पर मुस्तैद यह कर्मी बखूबी समझते हैं कि आज रिस्क नहीं लिया तो कल किसी और के लिए रिस्क बन जाएंगे। हालांकि, कुछ कमियां भी हैं।
क्या फिल्म में कुछ कमियां भी हैं?
खलनायक जब सशक्त होता है तब नायक की दूरदर्शिता, साहस और चपलता लोगों की भावनाओं को छूती है। यहां पर खलनायक का पहलू कमजोर है। इंटरवल के बाद कहानी जब गाजी बाबा को पकड़ने के करीब पहुंचती है तो उस ऑपरेशन में थोड़ा ट्विस्ट और टर्न को डालते हुए उसे थोड़ा दिलचस्प बनाने की जरूरत थी।
गाजी बाबा की निजी जिंदगी को भी थोड़ा टटोला जा सकता था। इसी तरह दिल्ली में तैनात शीर्ष एजेंसियों के पात्रों को समुचित तरीके से गढ़ा नहीं गया है। उनके निर्णय और संवाद कमजोर लगते हैं, जिससे कथानक की गंभीरता कम होती है।
संगीत और कैमरे ने डाल दी फिल्म में जान
माहौल में व्याप्त तनाव को उबारने में बैकग्राउंड संगीत मददगार साबित होता है। सिनेमेटोग्राफर कमलजीत नेगी ने श्रीनगर की खूबसूरत वादियों से लेकर आतंक की दुनिया को अपने कैमरे में बखूबी दर्शाया है। कई दृश्य मनमोहक हैं।
ग्राउंड जीरो में कैसी है एक्टिंग?
कलाकारों की बात करें तो नरेंद्र की भूमिका को इमरान हाश्मी ने शिद्दत से निभाया है। उन्होंने नरेंद्र की मनोदशा, काम के प्रति समर्पण, पारदर्शिता और देशप्रेम को बखूबी अपने अभिनय में पिरोया है। नरेंद्र के बीएसएफ सहयोगियों के रूप में अभय धीरज सिंह, ललित प्रभाकर और दीपक परमेश का अभिनय उल्लेखनीय हैं।
नरेंद्र की पत्नी की भूमिका में सई ताम्हणकर सीमित भूमिका में भी अपना प्रभाव छोड़ती हैं। जोया हुसैन के पात्र को बेहतर तरीके से गढ़ने की आवश्यकता थी।
बीएसएफ अधिकारी की भूमिका में मुकेश तिवारी पात्र साथ न्याय करते हैं। अच्छी बात यह है कि फिल्म में कोई भी बेवजह का डांस गाना या अंतरंग सीन नहीं डाला गया है। बीएसएफ की जाबांजी देखने के लिए यह फिल्म देखनी चाहिए।