राजस्थानराज्य

जयपुर: जोबनेर के प्राचीन ज्वाला माता मंदिर में उमड़ा भक्तों का सैलाब

जयपुर से 50 किलोमीटर दूर जोबनेर कस्बे में स्थित प्राचीन ज्वाला माता मंदिर में चैत्र नवरात्रि के शुभारंभ के साथ ही भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी है। मान्यता है कि यह मंदिर माता सती के घुटने के शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध है। यहां देवी की कोई मूर्ति नहीं है, बल्कि एक प्राकृतिक आकृति को माता का स्वरूप मानकर पूजा की जाती है।

जिले के जोबनेर कस्बे में स्थित प्राचीन ज्वाला माता मंदिर में चैत्र नवरात्रि के शुभारंभ के साथ ही श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ पड़ा है। यह मंदिर जयपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर स्थित है और इसे विशेष रूप से माता सती के घुटने के शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार जब भगवान शिव माता सती के पार्थिव शरीर को लेकर तांडव कर रहे थे, तब उनके शरीर के विभिन्न हिस्से अलग-अलग स्थानों पर गिरे। ऐसी मान्यता है कि माता सती के घुटने का भाग जोबनेर में गिरा था और इसी स्थान पर ज्वाला माता के रूप में देवी की पूजा की जाती है।

प्राकृतिक रूप से प्रकट हुआ घुटना
अन्य मंदिरों की तरह यहां किसी मूर्ति की स्थापना नहीं की गई है। मंदिर के पुजारी बनवारीलाल पाराशर के अनुसार एक गुफा में माता के घुटने के आकार की प्राकृतिक आकृति प्रकट हुई थी, जिसे ही देवी का स्वरूप मानकर पूजा जाता है। भक्तजन माता को सवा मीटर की चुनरी और 5 मीटर के कपड़े से बने लहंगे से शृंगारित करते हैं तथा 16 शृंगार करते हैं।

मंदिर के गर्भगृह में अखंड ज्योत प्रज्वलित है, जो मंदिर की स्थापना से लेकर आज तक लगातार जल रही है। यहां की खास परंपरा यह है कि माता की आरती चांदी के बर्तनों में ही की जाती है। देवी को केवटा, हार, छत्र और मुकुट पहनाए जाते हैं, जिससे उनका भव्य शृंगार किया जाता है।

चैत्र नवरात्रि पर उमड़ी श्रद्धालुओं की भीड़
नवरात्रि के पावन अवसर पर मंदिर में वार्षिक लक्खी मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं, सुबह तीन बजे से ही दर्शन के लिए कतारें लगना शुरू हो जाती हैं। इस दौरान मंदिर प्रांगण भजन-कीर्तन से गूंज उठता है और माता के जयकारों से पूरा क्षेत्र भक्तिमय हो जाता है।

ऐतिहासिक रूप से यह मंदिर चौहान काल में संवत 1296 में निर्मित माना जाता है। 1600 के आसपास जगमाल पुत्र खंगार, जो जोबनेर के प्रतापी शासक थे, उन्होंने इस मंदिर की सेवा में अपना जीवन समर्पित किया। यहां माता को खंगारोत राजपूतों की कुलदेवी माना जाता है और वे विशेष रूप से इस मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं।

मंदिर की सबसे अनोखी विशेषता यहां स्थित 200 वर्ष पुरानी नौबत (बड़ा नगाड़ा) है, जिसे सुबह-शाम आरती के समय बजाया जाता है। यह परंपरा मंदिर की प्राचीनता और सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाती है।

नवरात्रि के दौरान नवविवाहित जोड़े माता के दरबार में जात देने आते हैं। जिन परिवारों की कुलदेवी ज्वाला माता हैं, वे अपने छोटे बच्चों का मुंडन संस्कार भी यहीं करवाते हैं। माता के प्रति अपार श्रद्धा के कारण देशभर से भक्तजन यहां अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए पहुंचते हैं।

मंदिर में देवी की पूजा ब्रह्म (सात्विक) और रुद्र (तांत्रिक) दोनों स्वरूपों में की जाती है। सात्विक पूजा में खीर, पूरी, चावल, पुए-पकौड़ी और नारियल का भोग लगाया जाता है, जबकि रुद्र स्वरूप में मांस और मदिरा का भोग चढ़ाने की परंपरा है।

जो श्रद्धालु हिमाचल प्रदेश स्थित ज्वाला माता शक्तिपीठ नहीं जा पाते, वे जोबनेर स्थित इस मंदिर में आकर मां ज्वाला के दर्शन करते हैं और अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करने की प्रार्थना करते हैं। यह मंदिर ना सिर्फ एक धार्मिक तौर पर बल्कि राजस्थान की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और शक्ति साधना का केंद्र भी है। नवरात्रि के अवसर पर यहां हर दिन विशेष पूजन, भजन-कीर्तन और भक्तों का मेला लगा रहता है, जिससे यह स्थान एक दिव्य और अलौकिक ऊर्जा से भर जाता है।

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