अध्यात्म

जाने संतान सप्तमी का महत्व, पूजा विधि

संतान सप्तमी व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को रखते हैं। संतान सप्तमी व्रत संतान और उसकी मंगलकामना के लिए रखा जाता है। संतान प्राप्ति की कामना रखने वालों के लिए भी यह व्रत लाभकारी माना गया है। इस व्रत में भगवान शंकर व माता पार्वती की विधिवत पूजा की जाती है। इस व्रत को स्त्री व पुरुष दोनों ही रख सकते हैं। जानें संतान सप्तमी की डेट, शुभ मुहूर्त, महत्व व पूजा विधि-

संतान सप्तमी 2022 तिथि-

हिंदू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि 02 सितंबर, शुक्रवार को दोपहर 01 बजकर 51 मिनट से प्रारंभ होगी। जो कि 03 सितंबर को दोपहर 12 बजकर 28 मिनट पर समाप्त होगी। उदयातिथि की परंपरा के अनुसार, संतान सप्तमी व्रत 03 सितंबर, शनिवार को रखा जाएगा।

संतान सप्तमी 2022 शुभ मुहू्र्त-

संतान सप्तमी के दिन अभिजीत मुहूर्त सुबह 11 बजकर 55 मिनट से दोपहर 12 बजकर 46 मिनट तक रहेगा। सुबह के समय पूजन का मुहूर्त सुबह 07 बजकर 35 मिनट से सुबह 09 बजकर 10 मिनट तक रहेगा। इसके अलावा दोपहर में 01 बजकर 55 मिनट से शाम 05 बजकर 05 मिनट तक संतान सप्तमी का पूजन किया जा सकता है।

संतान सप्तमी महत्व-

संतान सप्तमी व्रत संतान के सुख, समृद्धि और खुशहाली के लिए किया जाता है। इसके साथ ही संतान सुख की प्राप्ति के लिए भी इस व्रत को रखा जाता है। मान्यता है कि इस दिन कथा पढ़ने या सुनने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

पूजा विधि-

सबसे पहले भगवान शिव और माता पार्वती की प्रतिमा लगाएं।
अब नारियल के पत्तों के साथ कलश स्थापित करें।
इसके बाद दीपक जलाएं।
अब आरती की थाली में हल्दी, चंदन, कुमकुम, फूल, कलावा, अक्षत और भोग आदि सामग्री रखें।
संतान की रक्षा और उसकी खुशहाली की कामना करते हुए भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करें।

संतान सप्तमी व्रत कथा-

पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उसके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था, जिसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी और रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं। जहां अन्य स्त्रियां भी स्नान कर रही थीं।

उन स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया, तब रानी चंद्रमुखी और रूपवती द्वारा उन स्त्रियों से पूजन का नाम तथा विधि के बारे में पूछने पर एक स्त्री ने बताते हुए कहा कि यह संतान देने व्रत वाला है। इस व्रत की बारे में सुनकर रानी चंद्रमुखी और रूपवती ने भी इस व्रत को जीवन-पर्यन्त करने का संकल्प किया और शिवजी के नाम का डोरा बांध लिया। लेकिन घर पहुंचने पर वे अपने संकल्प को भूल गईं। जिसके कारण मृत्यु के पश्चात रानी वानरी और ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं।

कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में आईं। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी और रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में ईश्वरी नाम से रानी और भूषणा नाम से ब्राह्मणी जानी गईं। राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ भूषणा का विवाह हुआ। उन दोनों में इस जन्म में भी बड़ा प्रेम हो गया।

पूर्व जन्म में व्रत भूलने के कारण इस जन्म में भी रानी की कोई संतान नहीं हुई। जबकि व्रत को भूषणा ने अब भी याद रखा था जिसके कारण उसने सुन्दर और स्वस्थ आठ पुत्रों ने जन्म दिया। संतान नहीं होने से दुखी रानी ईश्वरी से एक दिन भूषणा उससे मिलने गई। इस पर रानी के मन में भूषणा को लेकर ईर्ष्या पैदा हो गई और उसने उसके बच्चों को मारने का प्रयास किया। परंतु वह बालकों का बाल भी बांका न कर सकी।

इस पर उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताईं और फिर क्षमा याचना करके उससे पूछा- आखिर तुम्हारे बच्चे मरे क्यों नहीं। भूषणा ने उसे पूर्वजन्म की बात स्मरण कराई साथ ही ये भी कहा कि उसी व्रत के प्रभाव से मेरे पुत्रों को आप चाहकर भी न मार सकीं। भूषणा के मुख से सारी बात जानने के बाद रानी ईश्वरी ने भी संतान सुख देने वाला यह व्रत विधिपूर्वक रखा, तब व्रत के प्रभाव से रानी गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया। उसी समय से यह व्रत पुत्र-प्राप्ति के साथ ही संतान की रक्षा के लिए प्रचलित है।

यह आलेख धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं, जिसे मात्र सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किया ग

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