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जालौर का ग्रेनाइट उद्योग बाहरी पत्थरों और टाइल्स की बढ़ती मांग के कारण संकट में है। जिले की 650 में से 500 से अधिक खदानें बंद हो चुकी हैं, और 7 करोड़ रुपये से अधिक का स्थाई शुल्क बकाया है। रॉयल्टी, जीएसटी और बिजली के भारी खर्चों के चलते उत्पादन लागत बढ़ गई है, जिससे जालौरी ग्रेनाइट बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा है।
ग्रेनाइट के लिए प्रसिद्ध जालौर इन दिनों गहरे संकट से गुजर रहा है। बाहरी इलाकों से आने वाले सस्ते पत्थरों और टाइल्स की बढ़ती मांग ने स्थानीय ग्रेनाइट उद्योग को मुश्किल में डाल दिया है। जिले में लगभग 650 ग्रेनाइट खदानों में से 500 से अधिक खदानें बंद हो चुकी हैं और कई प्रसंस्करण इकाइयां भी ठप पड़ी हैं।
खनिज विभाग के अनुसार जालौर की ग्रेनाइट खदानों पर 7 करोड़ रुपये से अधिक का स्थाई शुल्क बकाया है। हालांकि सरकार की एमनेस्टी योजना के तहत कुछ राहत दी गई थी, लेकिन मांग में गिरावट और बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण कई खदान मालिक खनन कार्य को फिर से शुरू करने से हिचकिचा रहे हैं।
सिरोही के पी व्हाइट और एस व्हाइट, पाली के चीमा पिंक, बाड़मेर के जेड ब्राउन और जैसलमेर के रेड लक्खा जैसे पत्थरों की बाजार में बढ़ती मांग ने जालौरी ग्रेनाइट की बिक्री पर गहरा असर डाला है। जिले की ग्रेनाइट प्रसंस्करण इकाइयों में 50 प्रतिशत से अधिक पत्थर बाहरी स्रोतों से लाकर तैयार किए जा रहे हैं।
खदान संचालकों को रॉयल्टी, जीएसटी और बिजली के भारी खर्चों का सामना करना पड़ रहा है। प्रति टन पत्थर पर 325 रुपये रॉयल्टी और 12 प्रतिशत जीएसटी लागू होने के कारण उत्पादन लागत बढ़ गई है। दूसरी ओर अन्य इलाकों के पत्थर सस्ते दामों में मिलने से जालौरी ग्रेनाइट बाजार में प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहा है।
राजस्थान माइनिंग एसोसिएशन, जालौर के अध्यक्ष भंवरसिंह कंवला ने बताया कि हर महीने ढाई से तीन लाख रुपये का बिजली बिल और अन्य करों का बोझ छोटे खदान मालिकों के लिए चुनौती बन गया है। ऐसे में उनके लिए खदानें चालू रखना मुश्किल हो रहा है। ग्रेनाइट उद्योग पर मंडरा रहे इस संकट को दूर करने के लिए खदान संचालकों और उद्योग संघों ने सरकार से राहत की मांग की है।