झारखंडराज्य

झारखंड: कुड़मी-अदिवासी में बढ़ा टकराव, आरक्षण और ट्रेन रोको आंदोलन

झारखंड में कुड़मी जाति और आदिवासी समुदाय के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। कुड़मी जाति वर्षों से अपनी जाति को आदिवासी (एसटी) सूची में शामिल करने की मांग कर रही है और हाल के दिनों में दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन के साथ राष्ट्रपति को ज्ञापन भी सौंपा गया। राज्यभर में रेल रोको आंदोलन भी किया गया, जिससे रेलवे को करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ और यात्रियों को गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ा। दर्जनों ट्रेनें रद्द हुईं और कई गाड़ियां बीच रास्ते में रोकनी पड़ीं।

12 अक्टूबर को मोरहाबादी मैदान में आदिवासी महाजुटान
कुड़मी जाति के एसटी सूची में शामिल होने की मांग पर आदिवासियों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा है। केन्द्रीय सरना समिति के अध्यक्ष अजय तिर्की ने शनिवार को प्रेसवार्ता कर 12 अक्टूबर को मोरहाबादी मैदान में महाजुटान का ऐलान किया। उन्होंने कहा कि किसी भी हालात में कुड़मी को एसटी सूची में शामिल नहीं होने दिया जाएगा। आदिवासी अपने हक और अधिकारों की रक्षा के लिए पूरी तरह तैयार हैं। 12 अक्टूबर को पूरे राज्य से आदिवासी अपने पारंपरिक हथियारों के साथ रांची पहुंचेंगे।

कुड़मी जाति का परिचय और ऐतिहासिक मांग
कुड़मी समाज खेती-किसानी से जुड़ा समुदाय है। झारखंड अलग राज्य बनने से पहले यह जाति ओबीसी में मानी जाती रही। 1931 की जनगणना में कुछ हिस्सों में कुड़मी को आदिम जनजाति के तौर पर दर्ज किया गया था। बाद में यह वर्गीकरण बदल गया और उन्हें आदिवासी सूची से हटा दिया गया। अब कुड़मी समाज चाहता है कि उन्हें फिर से आदिवासी सूची में शामिल किया जाए।

कुड़मी जाति की मांग को पूरा करने का अधिकार केंद्र सरकार और जनजातीय मंत्रालय के पास है। इसके लिए राज्य सरकार को सिफारिस भेजनी पड़ेगी, उसके बाद केंद्र सरकार अंतिम फैसला लेगी। यदि कुड़मी जाति को एसटी का दर्जा मिल जाता है, तो आदिवासी समुदाय नाराज होगा और राज्य की हेमंत सोरेन सरकार के लिए यह चुनौतीपूर्ण होगा। मौजूदा आदिवासी समुदाय (मुंडा, संथाल, उरांव आदि) के आरक्षण पर असर पड़ेगा, जबकि कुड़मी समाज को शिक्षा, नौकरी और राजनीति में एसटी कोटे का लाभ मिलेगा।

दोनों पक्षों ने राज्यपाल को सौंपा ज्ञापन
दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी मांगों का ज्ञापन राज्यपाल संतोष गंगवार को सौंपा। कुड़मी समाज एसटी सूची में शामिल किए जाने की मांग कर रहा है, जबकि आदिवासी संगठन इसे रोकने की गुहार लगा रहे हैं। कुड़मी नेताओं में पूर्व उप मुख्यमंत्री सुदेश महतो और पूर्व विधायक लंबोदर महतो ने कहा कि झारखंड आंदोलन और राज्य निर्माण में कुड़मी समुदाय ने सबसे ज्यादा बलिदान दिया है। उनका स्वाभिमान और सम्मान बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि 1931 तक कुड़मी आदिवासी थे और जब पहचान और अधिकार की बात करते हैं तो अनदेखा किया जाता है। आंदोलन करना उनकी मजबूरी है।

वहीं आदिवासी नेताओं बबलू मुंडा, पूर्व मंत्री गीतश्री उरांव और प्रेमशाही मुंडा ने कहा कि झारखंड राज्य के पांचवीं अनुसूची के तहत गठन होने के बाद 2001 से कुड़मी समाज द्वारा एसटी सूची में शामिल किए जाने की मांग उठाई जा रही है। झारखंड जनजाति शोध संस्थान TRI के प्रथम शोध पत्र 2004 में इसे आधारहीन बताया गया। उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक और पारंपरिक संरचनात्मक रूप से भी कुड़मी का आदिवासी दर्जा पाने का दावा बेबुनियाद है। यदि कुड़मी को शामिल किया गया तो मौजूदा आदिवासियों का हिस्सा घट जाएगा। सरकार को यह फैसला सोच-समझकर करना चाहिए।

जानें क्या पड़ेगा झारखंड की जनता पर असर
कुड़मी और आदिवासी की लड़ाई का असर राज्य की अन्य जनता पर भी पड़ रहा है। दोनों पक्ष अपनी-अपनी मांगों पर अडिग हैं। झारखंड में कुड़मी-महतो की संख्या अच्छी-खासी है। 2011 की रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या 8-10 प्रतिशत है, जबकि कुड़मी नेताओं का दावा है कि उनकी आबादी 28 प्रतिशत है। कुड़मी आंदोलन जातीय पहचान की मांग है, लेकिन इसका बोझ सीधे जनता पर पड़ रहा है। अभी सबकी नजर भारत सरकार पर टिकी है। यदि केंद्र कोई फैसला नहीं लेती है तो रेल पटरी पर बार-बार प्रदर्शन होगा, जिससे आम यात्रियों को परेशानी और रेलवे को आर्थिक नुकसान होगा। यदि मामला सुलझाया गया तो समाज दो हिस्सों में बंट सकता है।

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