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झारखंड: गंगा में प्लास्टिक प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत पैकेजिंग कचरा

गंगा नदी के उस हिस्से में, जहां कई दुर्लभ और संकटग्रस्त जीव-जंतु पाए जाते हैं, सबसे ज्यादा प्लास्टिक प्रदूषण पैकेजिंग कचरे से हो रहा है। यह जानकारी वन्यजीव संस्थान के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन में सामने आई है।

यह अध्ययन झारखंड के साहिबगंज जिले में लाल बथानी से राधानगर तक फैले 34 किलोमीटर लंबे हाई-बायोडाइवर्सिटी जोन में किया गया। इस क्षेत्र में गंगा डॉल्फिन और स्मूद-कोटेड ऊदबिलाव जैसे दुर्लभ जीव रहते हैं। शोधकर्ताओं ने 2022 से 2024 के बीच 76 किलोमीटर क्षेत्र में सर्वे किया और करीब 37,730 कचरे के टुकड़े दर्ज किए।

अध्ययन में सामने आया कि कुल प्लास्टिक कचरे में 52.4 प्रतिशत हिस्सा पैकेजिंग का था, जिसमें खाने-पीने के सामान के रैपर, एक बार इस्तेमाल होने वाले पैकेट और प्लास्टिक बैग शामिल थे। इसके बाद 23.3 प्रतिशत प्लास्टिक के टुकड़े, 5 प्रतिशत तंबाकू उत्पादों का कचरा और 4.7 प्रतिशत डिस्पोजेबल बर्तन यानी कप, प्लेट और चम्मच पाए गए। वहीं मछली पकड़ने के जाल, कपड़े और मेडिकल प्लास्टिक भी थोड़ी मात्रा में मिले।

सबसे ज्यादा प्रदूषण बाढ़ प्रभावित इलाकों यानी फ्लडप्लेन में दर्ज किया गया, जहां प्रति वर्ग मीटर औसतन 6.95 टुकड़े मिले। यह नदी किनारों पर पाए गए प्रदूषण से लगभग 28 गुना ज्यादा था। ग्रामीण और शहरी इलाकों में प्रदूषण का स्तर लगभग समान था, जबकि जनसंख्या घनत्व वाले और कम घनत्व वाले क्षेत्रों में भी कोई बड़ा अंतर नहीं पाया गया। मौसमी बदलाव का असर मामूली रहा, लेकिन मानसून के बाद बाढ़ से नदी में काफी कचरा बहकर आ गया।

हाई-बायोडाइवर्सिटी जोन में ही 61 प्रतिशत कचरा दर्ज किया गया, जिसमें बड़ी मात्रा में फेंके गए मछली पकड़ने के जाल और थर्माकोल शामिल थे। यह स्थिति जलीय जीवों के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रही है। अध्ययन के मुताबिक कुल कचरे में 87 प्रतिशत घरेलू कचरा, 4.5 प्रतिशत मछली पकड़ने का सामान और 2.6 प्रतिशत धार्मिक सामग्री थी। शोधकर्ताओं ने साफ कहा है कि गंगा किनारे बसे बाढ़ग्रस्त गांवों में कचरा इकट्ठा करने और निपटाने की कोई व्यवस्थित व्यवस्था नहीं है। यही वजह है कि गंगा में प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है।

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