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दिल्ली में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन गंभीर चुनौती, अब एमसीडी की ये है प्लानिंग

राजधानी में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन (एसडब्ल्यूएम) एक गंभीर और चुनौतीपूर्ण विषय बना हुआ है। प्रतिदिन 11,500 मीट्रिक टन कचरा उत्पन्न करने वाली राजधानी के लिए यह समस्या केवल पर्यावरणीय ही नहीं, बल्कि जनस्वास्थ्य और शहरी विकास से भी जुड़ी है।

एमसीडी ने मौजूदा स्थिति, चुनौतियों और भावी योजनाओं का खाका तैयार किया है, लेकिन इसके तहत राहत आने वाले वर्षों में मिलने की संभावना है। एमसीडी की एक रिपोर्ट के अनुसार, राजधानी में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले 11,500 मीट्रिक टन कचरे में 40 प्रतिशत बायोडिग्रेडेबल और 60 प्रतिशत गैर-बायोडिग्रेडेबल है। मौजूदा अपशिष्ट प्रसंस्करण क्षमता 8,065 मीट्रिक टन प्रतिदिन है, लेकिन वास्तविक प्रसंस्करण केवल 7,259 मीट्रिक टन प्रतिदिन तक सीमित है। इस तरह लगभग 4,242 मीट्रिक कचरा प्रतिदिन बिना संसाधित हुए लैंडफिल साइटों पर दबाव बढ़ा रहा है।

रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि कई परियोजनाए समय से पीछे चल रही हैं। तेहखंड ऊर्जा संयंत्र के विस्तार के लिए पर्यावरण मंत्रालय से नियम व शर्तों को मंजूरी का मामला लंबित है। वहीं निर्माण एवं विध्वंस अपशिष्ट प्रबंधन भी बड़ी चुनौती है। दिल्ली रोजाना 5,500 से 6,000 मीटक टन सीएंडडी अपशिष्ट उत्पन्न करती है।

एसडब्ल्यूएम का असली चेहरा आने वाले वर्षों में बदलेगा : एमसीडी के अनुसार, दिल्ली के एसडब्ल्यूएम का असली चेहरा आने वाले वर्षों में बदलने वाला है। इसके केंद्र में अपशिष्ट से ऊर्जा परियोजनाए और नई अपशिष्ट प्रबंधन तकनीकें होंगी। नरेला-बवाना ऊर्जा संयंत्र में 3,000 टन प्रतिदिन क्षमता वाले इस संयंत्र का काम शुरू हो चुका है। उम्मीद है कि यह दिसंबर 2027 तक चालू हो जाएगा। इसके शुरू होने से प्रतिदिन हजारों टन कचरे का निपटान वैज्ञानिक ढंग से संभव होगा।

बीते महीनों में बायोमाइनिंग की गति बढ़ाने में सफलता मिली
एमसीडी ने बताया कि बीते महीनों में सबसे बड़ी सफलता बायोमाइनिंग की गति बढ़ाने के रूप में सामने आई है। जनवरी 2025 में जहां 3,787 टन प्रतिदिन बायोमाइनिंग हो रही थी, वहीं जून 2025 तक यह बढ़कर 23,657 टन प्रतिदिन हो गई। इससे आने वाले महीनों में लैंडफिल साइटों का बोझ घटने की उम्मीद है। बायोमाइनिंग के बाद खाली हुई भूमि का उपयोग आधुनिक अपशिष्ट प्रसंस्करण संयंत्र कम्पोस्ट प्लांट और बायो-सीएनजी इकाइयों के लिए किया जाएगा। पर्यावरणीय दृष्टि से लैंडफिल साइटों को हराभरा बनाने की कोशिशें भी तेज हुई हैं। ओखला और भलस्वा में अप्रैल से जून 2025 के बीच 66,242 पौधे लगाए गए हैं।

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