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बस्तर के आदिवासियों को जब नक्सली बारूद-बंदूक थमा रहे थे, तब थमाई कलम

बस्तर के आदिवासियों को जब नक्सली बारूद और बंदूक थमा रहे थे, तब गांधीवादी धर्मपाल सैनी ने ऐसे आदिवासी बच्चों को कलम थमाने का काम किया। 92 साल के हो चुके धर्मपाल सैनी अब तक वे 10 हजार से अधिक आदिवासी बच्चों को शिक्षित कर चुके हैं। इनमें से दो हजार बच्चे ऐसे भी हैं, जिनकी शारीरिक क्षमता को पहचानने के बाद इन्हें तराश कर उन्होंने राष्ट्रीय स्तर का खिलाड़ी बना दिया। आश्रम से निकले सैकड़ों बच्चे अब डाक्टर-इंजीनियर व शिक्षक बनकर राष्ट्र सेवा का काम कर रहे हैं। कई ऐसे भी हैं, जो कमांडों बनकर बस्तर में ही नक्सलवाद को चुनौती देने का काम कर रहे हैं। आश्रम का एक भी बच्चा नक्सल संगठन में नहीं गया, स्वयं धर्मपाल सैनी यह दावा करते हैं।

धर्मपाल सैनी ने बताया, जब वे यहां आए थे तो नक्सलवाद की शुरुआत हो रही थी। आश्रम में पढ़ने वाले अंदरूनी क्षेत्र के बच्चे बताते थे- दादा लोग बंदूक लेकर गांव आते हैं और ग्रामीणों को अपने साथ शामिल कर रहे हैं। इसकी जानकारी उन्होंने शासन-प्रशासन के अधिकारियों को दी थी पर तब नक्सलियों के औचित्य पर यहां कोई विश्वास नहीं करता था। बीजापुर क्षेत्र के आश्रम में पढ़ने वाली बच्ची ईश्वरी के पिता की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी। शिक्षा के मोर्चे पर दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ा। पढ़ाई को लेकर आदिवासी जागरूक नहीं थे। दूसरी ओर नक्सली अपने संगठन बढ़ाने के लिए बच्चों और युवाओं को अपने साथ जोड़ रहे थे।

चार बालिकाओं से शुरुआत, अब 37 आश्रम में 600 गांव के बच्चे पढ़े रहे

धर्मपाल सैनी ने बताया कि 1976 में वे बस्तर आए, यहां डिमरापाल में अपनी साथी निर्मला देशपांडे व केयूर भूषण के साथ मिलकर माता रुक्मणी आश्रम की स्थापना की। आश्रम की श्ाुरुआत चार आदिवासी बालिकाओं से हुई। बच्चियों को आश्रम तक लाने के लिए सरपंच के हाथ जोड़ने पड़े थे। ग्रामीण सवाल करते थे कि लड़कियों को भी कोई पढ़ाता है? तब से लेकर बस्तर में शिक्षा यात्रा के पड़ाव में 37 आश्रम वे संचालित कर रहे हैं। इनमें 600 गांव व पारा-टोले के करीब तीन हजार आदिवासी बच्चों को हर साल शिक्षित करने का कार्य किया जा रहा है। इनके आधे से अधिक आश्रम बस्तर के घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में हैं। जहां जाने के लिए सड़कें तक नहीं है। चिंतलनार, जगरगुंडा, बासागुड़ा, टेटम, सेंड्रा, पासेवाड़ा में भी आश्रम चल रहे हैं।

राष्ट्रीय खिलाड़ियों की नर्सरी हैं इनके आश्रम

बस्तर में धर्मपाल सैनी के आश्रम राष्ट्रीय खिलाड़ी तैयार करने की संस्था के तौर पर जाना जाता है। यहां से अब तक दो हजार से अधिक राष्ट्रीय खिलाड़ी निकल चुके हैं। ऐसा उन्होंने बिना किसी विशेष सुविधा के कर दिखाया। कई साल तक राज्य स्तरीय विजेता रह चुकीं मैराथन धाविका ललिता कश्यप बताती हैं कि बकावंड के अंदरूनी गांव से निकलकर वे आश्रम में आईं और धर्मपाल सैनी के मार्गदर्शन में दौड़ना शुरू किया और दर्जनों पुरुस्कार जीते। जानकी मज्जी नक्सल प्रभावित गांव केरपा से निकलकर आईं और राज्य स्तर पर खेल जगत में नाम कमाया। आश्रम की खिलाड़ियों ने अब तक 50 लाख रुपये से भी अधिक की राशि पुरस्कार में जीती है।

गांधी भजनावली से आश्रमों में दिन की शुरुआत

धर्मपाल सैनी ने बताया कि 1955 में आगरा विश्वविद्यालय से कामर्स में स्नातक के बाद वे आचार्य विनोबा भावे के साथ भूदान आंदोलन में जुड़े। उनके बाद पर बस्तर आ गए और आदिवासियों की शिक्षित करने का काम शुरु किया। आचार्य विनोबा भावे महात्मा गांधी से प्रभावित थे। वे जब विनोबा भावे के आश्रम गए तो वहां से गांधी भजनावली व इशो उपनिषद ले आए थे। बस्तर के सभी आश्रमों में इसका गायन प्रार्थना में किया जाता है।

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