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लुधियाना : श्रीराम के आठ क्विंटल के सिंहासन को कंधों पर उठाकर घुमाता है मेहरा परिवार

वक्त के बदलने से लोग बदलते हैं, उनके मिजाज बदलते हैं, लेकिन हजारों साल से चली आ रही परंपराएं नहीं बदलती। परंपराओं की धरोहर को हर पीढ़ी के लोग पूरी शिद्दत से निभाते हैं और इसे पूरी श्रद्धा के साथ अगली पीढ़ी को सौंपते हैं। तभी तो हर पीढ़ी के लोग इनसे जुड़े रह कर खुद को खुशनसीब मानते हैं, ऐसी ही धार्मिक परंपराओं को संजो कर रखने वाले लोगों पर प्रभु कृपा भी बनी रहती है। 

लुधियाना में भी दशहरे से पहले प्रभु श्री राम के डोले (सिंहासन) की यात्रा निकालने की परंपरा 200 साल से भी पुरानी है। आज भी शहर में शारदीय नवरात्रों के अवसर पर ठाकुरद्वारा नौहरियां से प्रभु श्री राम की सिंहासन यात्रा पूरी श्रद्धा एवं धूमधाम के साथ निकाली जाती है। दूर दूर से लोग इस यात्रा को देखने आते हैं और प्रभु का आशीर्वाद पाते हैं।

शारदीय नवरात्रों के दिनों में यह उत्सव मनाया जाता है। नवरात्र से लेकर दशहरे तक एक ही परिवार के बारह लोग अपने कंधों पर प्रभु श्री राम के सिंहासन को उठाकर ठाकुरद्वारा से विभिन्न क्षेत्रों से होते हुए दरेसी के रामलीला मैदान में पहुंचते हैं। यहां पर भव्य रामायण का आयोजन होता है। दरेसी से प्रभु के सिंहासन को यहीं लोग वापस ठाकुरद्वारा लाते हैं और यह सिलसिला दस-ग्यारह दिन तक चलता है। गांव उच्चा पिंड सुनेत का मेहरा परिवार चार पीढि़यों से इस डोले की सेवा कर रहा है।

आने वाले पीढ़ी भी कायम रखेगी परंपरा

उच्चा पिंड सुनेत एवं पमाल के महिंदर सिंह ठेकेदार कहते हैं कि वे 70 साल से डोले को अपने भाइयों एवं रिश्तेदारों संग उठा रहे हैं। उनके पिता बाबू राम भी यहीं कार्य करते थे। परमिंदर एवं जगरूप ने कहा कि उनकी आने वाली पीढ़ी भी इस परंपरा को कायम रखेगी। कहार परमिंदर सिंह व जगरूप सिंह ने बताया कि लगभग 10 साल पहले पुराने डोले को बदलकर नया डोला बनाया गया। डोला बनाने के लिए छत वहीं इस्तेमाल की गई।

पहले किले से दरेसी रामलीला मैदान पहुंचती थी झांकी

ठाकुरद्वारा स्थित श्री हनुमान मंदिर की गद्दी पर विराजमान 12वीं पीढ़ी के महंत कृष्ण बावा का कहना है कि पहले ये झांकी किले से दरेसी रामलीला मैदान पहुंचती थी, लेकिन 1857 के बाद इसे ठाकुरद्वारा के सुपुर्द कर दिया गया। तब से लेकर आज तक प्रभु श्री राम का सिंहासन ठाकुरद्वारा से सज कर कहारों के कंधे पर दरेसी पहुंचता है। उन्होंने बताया कि उनके दादा महंत मथुरा दास एवं उनके पिता महंत नंद किशोर की अध्यक्षता में यह डोला निकलता था।

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