पंजाबराज्य

शहीद ऊधम सिंह का जन्मदिवस आज: क्रांति की ज्वाला ही नहीं, कुशल कारीगर भी थे ऊधम सिंह

शहीद ऊधम सिंह केवल क्रांति की धधकती ज्वाला ही नहीं थे बल्कि वे एक बेहद कुशल कारीगर और दूरदर्शी शिल्पकार भी थे। सुनाम में 26 दिसंबर 1899 को जन्मे इस महान सपूत के जन्मदिवस को लेकर आज उनके पैतृक शहर में उत्सव का माहौल है। जहां एक ओर उनके पैतृक घर को दुल्हन की तरह सजाकर अखंड पाठ साहिब का प्रकाश किया गया है वहीं दूसरी ओर उनके मेमोरियल में रखी एक ‘नायाब निशानी’ हर किसी को भावुक कर रही है। यह निशानी है ‘बगदादी झंडा’।

ऊधम सिंह द्वारा साल 1919 में बगदाद में अपने हाथों से तैयार की गई कढ़ाई का यह उत्कृष्ट नमूना उनकी बहुमुखी प्रतिभा का गवाह है। उन्होंने यह कलाकृति अपने प्रिय जीवा सिंह को भेंट की थी, जिसे अब उनके परिवार ने मैमोरियल को सौंप दिया है। कपड़े पर रेशम के धागों से कढ़ाई से बनाया गया यह झंडा साबित करता है कि एक योद्धा के भीतर कितना कोमल और मंझा हुआ कलाकार छिपा था।

दो बार सेना में भर्ती और प्रतिशोध की ‘इंजीनियरिंग’
ऐतिहासिक दस्तावेज और अनीता आनंद की चर्चित पुस्तक ‘द पेशेंट असैसिन’ इस बात की पुष्टि करती है कि ऊधम सिंह के भीतर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नफरत की पहली चिंगारी इराक की तपती धरती पर ही सुलग गई थी। वे दो बार ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हुए। पहली बार (1917-18) वे 32वीं सिख पायनियर्स के साथ बसरा (इराक) गए, लेकिन ब्रिटिश अफसरों की तानाशाही के कारण 6 महीने में ही लौट आए। दूसरी बार (1918) वे दोबारा भर्ती होकर बगदाद पहुंचे, जहां उन्होंने बढ़ईगीरी और सैन्य वाहनों के रखरखाव का काम किया। यहीं से उनके ‘हरफनमौला’ बनने का सफर शुरू हुआ।

वर्कशॉप की ट्रेनिंग बनी ओ’डायर का ‘मौत का वारंट’
ऊधम सिंह ने सेना की नौकरी को दुनिया देखने और तकनीकी ज्ञान हासिल करने के अवसर के रूप में लिया। बगदाद में इंजन की मरम्मत और धातुकर्म सीखते हुए वे एक ऐसे ‘कुशल कारीगर’ बन चुके थे, जिसका मुकाबला मुश्किल था। यही हुनर साल 1940 में लंदन के कैक्सटन हॉल में उनका सबसे बड़ा हथियार बना। उन्होंने जिस बारीकी से एक मोटी किताब के पन्नों को काटकर रिवॉल्वर छिपाने का खांचा तैयार किया, वह उनकी उसी ‘बगदादी वर्कशॉप’ की ट्रेनिंग का कमाल था। उसी किताब में छिपी मौत ने आखिरकार माइकल ओ’डायर का अंत किया।

अनाथालय से प्रतिशोध की दहलीज तक का सफर
1919 की शुरुआत में जब ऊधम सिंह अमृतसर के अनाथालय लौटे, तो वे एक सरल युवक नहीं थे। वे एक अनुभवी तकनीकी जानकार थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की रगों को करीब से देखा था। वापसी के कुछ ही महीनों बाद 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उनके भीतर की कड़वाहट को एक ‘पवित्र प्रतिज्ञा’ में बदल दिया।

21 साल का धैर्य: ढाल बना ‘बगदादी हुनर’
बगदाद में सीखी इंजीनियरिंग के दम पर ही ऊधम सिंह 21 साल तक दुनिया भर में घूमते रहे। लंदन की गलियों में वे कभी मैकेनिक, कभी कारपेंटर तो कभी साइन-बोर्ड पेंटर बनकर ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों की आंखों में धूल झोंकते रहे। उनका धैर्य अद्वितीय था और उनका हुनर ही उनकी सबसे बड़ी ढाल बना रहा। सुनाम की गलियों में गूंजता उनका नाम हर भारतीय को गर्व से भर देता है।

Related Articles

Back to top button