
अमृतधारी सिख वकील ने कनाडा में कोर्ट केस जीता है। एडवोकेट प्रभजोत सिंह ने किंग चार्ल्स तृतीय के प्रति निष्ठा की शपथ लेने से इन्कार कर दिया था और इसको 2022 में कोर्ट में चुनौती दी थी।
मुक्तसर जिले के गांव वड़िंग के मूल निवासी और अमृतधारी सिख वकील प्रभजोत सिंह ने कनाडा में एक ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई जीत ली है। प्रभजोत सिंह ने किंग चार्ल्स तृतीय के प्रति निष्ठा की शपथ लेने से इन्कार कर दिया था और इसको 2022 में कोर्ट में चुनौती दी थी। तीन साल की लड़ाई के बाद आखिरकार अल्बर्टा सरकार को अपने कानून में बदलाव के झुकना ही पड़ा।
प्रभजोत सिंह एडमोंटन (अल्बर्टा) में रह रहे हैं। उन्होंने डलहौजी यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई पूरी की और अल्बर्टा में वकालत शुरू करने के लिए आर्टिकलिंग की प्रक्रिया में थे। इसी दौरान नियम के तहत उन्हें कनाडा के मौजूदा सम्राट किंग चार्ल्स के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी थी। प्रभजोत ने यह कहते हुए शपथ लेने से इनकार कर दिया था कि वह एक अमृतधारी सिख है और इसके नाते वह केवल अकाल पुरख के प्रति ही निष्ठा की शपथ ले सकते हैं। सिख मर्यादा के अनुसार किसी सांसारिक शासक के प्रति सच्ची निष्ठा की शपथ लेना उनके धार्मिक विश्वासों के विरुद्ध है।
अदालत का दरवाजा खटखटाया
इसके बाद प्रभजोत सिंह ने 2022 में इस नियम को अदालत में चुनौती दी थी। उन्होंने दलील दी कि यह शर्त उन्हें धर्म और पेशे में से किसी एक को चुनने के लिए मजबूर करती है जो कनाडाई चार्टर ऑफ राइट्स एंड फ्रीडम के तहत प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। निचली अदालत ने 2023 में याचिका खारिज करते हुए शपथ को प्रतीकात्मक बताया, लेकिन प्रभजोत ने हार नहीं मानी और अल्बर्टा कोर्ट ऑफ अपील में अपील दायर की। दिसंबर 2025 में अल्बर्टा कोर्ट ऑफ अपील के तीन जजों की पीठ ने सर्वसम्मति से निचली अदालत का फैसला पलट दिया। कोर्ट ने कहा कि शपथ केवल प्रतीकात्मक नहीं बल्कि यह प्रभजोत सिंह पर वास्तविक और गंभीर दबाव डालती है। अदालत ने इसे चार्टर की धारा 2(ए) के तहत धर्म की स्वतंत्रता का उल्लंघन माना। कोर्ट ने प्रांत को 60 दिनों के भीतर नियम में संशोधन के आदेश दिए हैं।
अदालत ने क्या विकल्प सुझाए
शपथ की अनिवार्यता समाप्त की जाए।
शपथ को वैकल्पिक बनाया जाए।
शब्दों में बदलाव कर राजा के प्रति निष्ठा हटाई जाए।
देशभर में मिली-जुली प्रतिक्रिया
नागरिक स्वतंत्रता संगठनों ने फैसले का स्वागत किया है। उनका कहना है कि पेशेवर शर्तों के नाम पर धार्मिक अधिकारों से समझौता नहीं किया जा सकता। वहीं, आलोचकों ने इसे कनाडा की संवैधानिक परंपरा और राजतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरा बताया। यह फैसला कनाडा में धार्मिक स्वतंत्रता और संवैधानिक मूल्यों पर नई बहस की शुरुआत माना जा रहा है।


